Wednesday 8 June 2011

'यादें'


वो आँगन में बैठे हुएय
चिडियों को चहचहाते सुनना ,
वो बारिश की बूंदों का
झम-झम होते हुएय बरसना;
वो सामने पहाड़ के पेड़ो को
मचलते हुएय देखना ,
और वही कोने किनारों से  
झरनों का गिरते रहना;


ले जाती हे मुझे खींच के
उन लम्हों के दामन में ,
जहा येह कलम नहीं पन्नों पे
पर कागज़ के नाँव थे जरुर इन हाथों में;

वो दिन जब ना कोई  समझ थी 
कि क्या कभी रुक सी भी जाती है येह ज़िन्दगी ?
क्योंकि मानो बस एक ही समझ थी 
चलते रहना ही हें ज़िन्दगी;

दोस्तों का जैसे मेला सा लग जाता था
पर अब जैसे मानो अक्सर अकेलापन ही घिर सा जाता है,
वो उचलना और कूदना बिना किसी बात पें
पर कुछ  बात थी जरुर हर दिन और रात में;

वो लम्हें जो हम अक्सर गुनगुनाया करते है
जिन्हें हम प्यार से अच्छी यादें कहतें चलतें है;

पर येह दिल अक्सर धीरे से पूछता है
कि क्या वो दिन वापस आते है ?
और मन चुपचाप सुन , केवल  मुस्कुरा कर 
मानो सारी बात कह जाता है...